अथ प्रथमाब्दे निषिद्धानि
(माता-पिता के मरने पर वर्षपर्यन्त वर्ज्य कर्म)
(धर्मसिंधु: – तृतीय: परिच्छेद: उत्तरार्ध भागम्)
मातापित्रोमंरणे वर्षपर्यन्तं परान्नं गन्धमाल्यादिभोगं मैथुनमभ्यङ्गस्नानं च वर्जयेत्।१ ऋतौ भार्यामुपेयादेव। आर्त्विज्यं२ लक्षहोम महादानादि काम्यकर्माणि तोर्थयात्रा विवाहादि वृद्धिश्राद्धयुतं कर्ममात्रं शिवपूजां च वर्जयेत् । संध्योपासन देवपूजापञ्च महायज्ञातिरिक्तकर्म मात्रं वर्ज्यम्।
प्रमीतौ पितरौ यस्य देहस्तस्याशुचिर्भवेत् ।
न दैवं नापि वा पित्र्यं यावत्पूर्णो न वत्सरः ॥ इति केचित्।
महातीर्थस्य गमनमुपवासव्रतानि च।
सपिण्डोश्राद्धमन्येषां वर्जयेद्वत्सरं बुधः ॥ अस्यापवादः –
माता-पिता के मरने में एक वर्ष तक दूसरे का अन्न भक्षण, गन्ध-माला आदि का भोग, मैथुन और तेल लगाकर स्नान न करे। ऋतु में पत्नी संगम अवश्य करे। ऋत्विक का कार्य, लक्षहोम, महादानादि काम्यकर्म, तीर्थयात्रा, विवाहादि, वृद्धिश्राद्धयुक्त सब कर्म और शिवपूजन न करे। सन्ध्योपासन, देवपूजन और पञ्चमहायज्ञ के अतिरिक्त सभी कर्म वर्जित है। (कुछ लोग)
जिसके माता-पिता मर गये है उसका शरीर जब तक वर्ष पूरा नहीं हो जाता अपवित्र रहता है। यह देव या पित्र्य कर्म न करे- ऐसा कहते हैं। महा तीर्थयात्रा उपवास और व्रत, दूसरों का सपिंडन श्राद्ध, बुद्धिमान् पुरुष वर्ष पर्यन्त त्याग दें। (इसका अपवाद है)
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१. श्राद्ध कौमुदी में देवल का बचन है- ‘अन्यश्राद्धं परान्न च गन्धमाल्यं च मेधुनम्। वर्जयेद् गुरुपाते तु यावत्पूर्णो न बत्सरः ॥’ इति।
२. हेमाद्रौ- ‘स्नानं चैव महादानं स्वाध्यायं चाग्नितर्पणम्। प्रथमाब्दे न कुर्वीत महा गुरूनिपातने॥” अग्नितर्पणं =लक्षहोमादि। आधान तो प्रथम वर्ष में होता है, जैसा उशना कहा है- ‘पितु: सपिण्डीकरणं वार्षिके मृतवासरे। आधानाद्युपसम्प्राप्ता वेतत्प्रागति वत्सरात् ॥’ दिवोदासीये-‘महातीर्थस्य गमनमुपवासव्रतानि च। संवत्सरं न कुर्वीत महागुरूनिपातने ।’ कौमुदी में कालिकापुराण का वचन है- ‘विशेषतः शिवपूजां प्रमीतपितृको नरः । यावद्वत्सरपर्यन्तं मनसाऽपि न चाचरेत् ॥’
पत्नीपुत्रस्तथा पौत्रो भ्राता तत्तनयः स्नुषा ।
मातापितृव्यश्चैतेषां महागुरुनिपातने ॥
कुर्यात्सपिण्डनश्राद्धं नान्येषां तु कदाचन ।
एकादशाहपर्यन्तं प्रेतश्राद्धं चरेत्सदा ॥
पित्रोर्मृतौ च नान्येषां कुर्याच्छ्राद्धं तु पार्वणम् ।
गयाश्राद्धं मृतानां तु पूर्णे त्वब्दे प्रशस्यते ॥
गारुडे – तीर्थश्राद्धं गयाश्राद्धं श्राद्धमन्यच पैतृकम् ।
अब्दमध्ये न कुर्वीत महागुरुविपत्तिषु॥
केचिद्वर्षान्त सपिण्डन पक्षे एवैते सर्वे निषेधा न तु द्वादशाह सपिण्डनपक्ष इत्याहुः। अपरे तु द्वादशाहसपिण्डनपक्षेऽपि सर्व एते निषेधा इत्याहुः।
पत्नी, पुत्र, पौत्र, भाई, भाई का लड़का, स्नुषा (पतोहू), माता, पितृव्य (पिता का भाई), इनके और महागुरु के मरने में सपिण्डन श्राद्ध करें, दूसरे के मरने में कभी न करे। प्रेतश्राद्ध एकादशाह तक सदा करे। माता पिता के मरने में अन्य का पार्वण श्राद्ध नहीं करे। वर्ष पूर्ण होने पर मरे हुओं का गया श्राद्ध प्रशस्त होता है। गरुडपुराण में कहा है – महागुरु के मरने में तीर्थ श्राद्ध, गया श्राद्ध और पैतृक श्राद्ध वर्ष के भीतर न करें। कुछ लोग वर्ष के अन्त में सपिण्डन पक्ष में ही ये सब निषेध है, द्वादशाह सपिण्डन पक्ष में नहीं, ऐसा कहते हैं। दूसरे तो – द्वादशाह सपिण्डन पक्ष में भी ये सब निषेध है, ऐसा कहते हैं।
अत्रैवं व्यवस्था-वृद्धिप्राप्तिं विनाऽर्वाक्सपिडनापकर्षेपि प्रेतस्य पितृत्वप्राप्तिर्वर्षान्त एव,
कृते सपिंडीकरणे नरः संवत्सरात्परम् ।
प्रेतदेहं परित्यज्य भोगवेहं प्रपद्यते ॥ इत्यादिवचनात् ।
तेन सपिण्डीकरणसत्त्वेऽपि वृद्धिदेवपित्र्येष्वनधिकारः । वृद्धिनिमित्तापकर्षे तु वृद्धधादावधिकार इति। अत एव कालतत्त्वनिर्णये संकटादौ मृतपितृकापत्यानां संस्काराभ्युदयिकं मृतमातापितुकेण पुत्रेण स्वापत्यसंस्कारादिकं च प्रथमाब्देऽपि कार्यमित्युक्तम्। दर्शमहालयाविश्राद्धस्य नित्यत्तर्पणस्य चाप्येवमेव व्यवस्था ज्ञेया॥
इसमें इस प्रकार व्यवस्था है- वृद्धि श्राद्ध की प्राप्ति के बिना सपिण्डन के पहले अपकर्ष में भी प्रेत की पितृत्व प्राप्ति वर्ष के अन्त में ही होती है। क्योंकि बचन है- कि मनुष्य, सपिंडीकरण करने पर वर्ष के बाद प्रेत शरीर छोड़कर भोग देह पाता है। इससे सपिण्डीकरण होने पर भी वृद्धि, दैव और पितृकर्म में अधिकार नहीं है। वृद्धिनिमित्तक अपकर्ष में तो वृद्धि आदि में अधिकार है। इसीलिये कालतत्त्व निर्णय में संकट आदि में जिनके पिता मर गये हैं उन सन्तानों के आभ्युदयिक संस्कार और जिनके माता-पिता दोनों मर गये हैं ऐसे पुत्र द्वारा अपने अपत्य का संस्कार आदि प्रथम बर्ष में भी करे यह कहा है। दर्श महालय आदि श्राद्ध तथा नित्य तर्पण की भी इसी प्रकार व्यवस्था जाननी चाहिये।
(सुरेश शर्मा, ज्योतिष अनुसंधान (98166-66303) द्वारा जनहित में संग्रहित)

